दोस्तों बात में से बात निकलती है इन दिनों सोशल मीडिया पे चर्चा है आदमी का पूर्वज बंदर था या नहीं।विचार और दर्शन प्रश्न से ही पैदा होता है बशर्ते प्रश्न की गुणवत्ता ऊंचे पाए की हो। सारा ज्ञान प्रश्नों की मथानी से ही छनके आया है -चाहे वह 'हाउ थिंग्स वर्क' हो या वे तमाम प्रश्न हो जिसमें जिज्ञासु -शिष्य 'गुरु' से पूछता है -वह कौन सी चीज़ है जिसे जान लेने के बाद और कुछ जान लेना शेष नहीं रहता।
उत्तर है वह ब्रह्म ही है -अथातो ब्रह्म ?ब्रह्म क्या है ?
शाब्दिक और दर्शन में प्रचलित अर्थ लें तो जो निरंतर वृद्धिमान है वह ब्रह्म है। जो पहले भी था अब भी है आइंदा भी रहेगा वही ब्रह्म है। इस सृष्टि में ब्रह्म के सिवाय दूसरा कोई तत्व है ही नहीं।
ब्रह्म विरोधी गुणों का संस्थान है 'बिग बैंग 'की तरह। कहते हैं ये सृष्टि उसी बिग बैंग से प्रसूत है। और यह सृष्टि का आदिम अणु तब भी था जब कुछ नहीं था -न काल ,कालखंड टाइम इंटरवल और न आकाश। काल के अस्तित्व के लिए तो "पहले" और "बाद" का पहले एक क्रम चाहिए सीक्वेंस चाहिए . और आकाश का तो अस्तित्व ही नहीं था -सारा गोचर ,अगोचर ,बोध गम्य, अबोधगम्य ,बूझने योग्य ,अबूझ पदार्थ ,डार्क - एनर्जी ,डार्क- मेटर (सामान्य पदार्थ से भिन्न माना गया है विज्ञान में डार्क मैटर और डार्क एनर्जी दोनों को। )सब इसी में था और यह आदिम अणु Primeval atom एक साथ सब जगह था।
Its size (volume )was zero density and temperature infinite .
ब्रह्म की तरह लेकिन यह अप्रकट रूप था। अन -मैनिफेस्ट था ,निर्गुण था।फिर एक महाविस्फोट में यह फट गया और सृष्टि का कालान्तर में जन्म हो गया। समय के साथ यह भी ब्रह्म की तरह फैलता ही जा रहा है। सृष्टि का प्रसार ज़ारी है ब्रह्म की मानिंद।
ब्रह्म ने चाहा मैं एक से अनेक हो जावूं और ये साड़ी सृष्टि बानी बनाई प्रकट हो गई ब्रह्म इसी में प्रवेश ले गया।
ब्रह्म -परमात्मा -और भगवान् -ब्रह्म में सारे गुण प्रकट नहीं है गुणों से यह प्रभावित भी नहीं होता इसीलिए इसे निर्गुण कहा गया है।
It is an impersonal form of God .
It is beyond all attributes ,omnipresent ,omniscient and all that you and I can imagine .
परमात्मा जिसका वास हमारे हृदय गह्वर में है -इसमें कुछ सीमित गुण मुखरित हैं.और भगवान् यह अनंत विरोधी गुणों का एक साथ प्रतिष्ठान है। सारे शरीर इसी के हैं और कोई भी शरीर इसका नहीं है। सारे रूप इसके हैं और यह अरूप है। अजन्मा है लेकिन अवतरित होता है। गुणों का प्राकट्य ही अवतरण है।अमर है लेकिन बहेलिये के हाथों मारा जाता है। यह एक साथ वर्तमान अतीत और भविष्य में हो सकता है होता है।
श्रीराम को रामचरितमानस में परात्पर परब्रह्म कहा गया है वह महाविष्णु है न के विष्णु का अवतार।जो सारे कायनात में रमा हुआ है रमैया है सब जिसमें रमण करते हैं सबको जो आनंद देता है वही राम है।
त्रिदेव या "देव -त्रय"-ब्रह्मा -विष्णु -महेश इसके उपासक हैं। भागवत पुराण और भगवदगीता में इसी परात्पर ब्रह्म को कृष्ण कह दिया गया है। गुरुग्रंथ साहब में यही वाहगुरु है। दस के दस गुरु उसके सन्देश वाहक हैं। परात्पर ब्रह्म वही है जो ऐसे एक साथ अनंत ब्रह्मा -विष्णु -महेश का सर्जक है। तत्व सब जगह एक ही है दूसरा कोई है ही नहीं।
"एक ओंगकार सतनाम" -ईशवर और उसकी सृष्टि एक ही है। वह इसी में हैं कहीं गया नहीं है। हमारे अज्ञान का आवरण उसे अज्ञेय बनाये रहता है। यही माया है इसे प्रकृति कह लो माया का मायावी आवरण ज्ञान से कटे तो वह अनुभूत हो। इन दैहिक नेत्रों का विषय नहीं है वाहगुरु कृष्ण या राम। ज्ञान चक्षु का विषय है ब्रह्म।
कई उपनिषदों में एक श्लोक आया है जिसका अर्थ है -वह ब्रह्म अनंत है उसकी यह सृष्टि भी अनंत है। पूर्ण से पूर्ण ही का प्राकट्य होता है। सृष्टि के उसमें से निकल जाने के बाद वह ब्रह्म न बढ़ता है न घटता है। और सृष्टि के लय (विलय ,डिज़ोल्व )होने पर भी वह ब्रह्म ही रहता है। अनंत का अनंत।
वह बिग -बैंग भी निराकार बतलाया गया है शून्य आकारी है आकार हुआ तो एक साथ सब जगह कैसे होवे । और घनत्व और तापमान उसका अनंत कहा गया है। और यह सृष्टि यह मात्र एक आवधिक प्राकट्य है टेन्योर है। सारी कायनात एक बार फिर इस आदिम अणु में लय हो जाएगी। ऐसा होता रहता है। होता रहेगा। ये प्राकट्य ही तो माया है।
माया क्या है ?
'जो हो न' लेकिन दिखलाई दे।जैसे खरगोश के सींग ,स्वर्ण मृग ,रेगिस्तान में पानी। सागर के ऊपर हवा में लटका हुआ उलटा जहाज। जैसे उड़न तश्तरी। बरमूडा त्रिकोण। यही तो माया है जो है भी नहीं भी है और दोनों ही नहीं है। लेकिन मेरा उसके साथ लेन देन है ट्रांसेक्शन है।यही तो उसका छल है कुनबा माया का और मैं कहूँ मेरा।
कबीर कहते हैं :
मन फूला फूला फिरै , जगत में झूठा नाता रे।
जब तक जीवै माता रोवै बहन रोये दस मासा रे ,
और तेरह दिन तक तिरिया रोवे ,
फेर करे घर वासा रे।
https://www.youtube.com/watch?v=fblWyQP0iKs
उत्तर है वह ब्रह्म ही है -अथातो ब्रह्म ?ब्रह्म क्या है ?
शाब्दिक और दर्शन में प्रचलित अर्थ लें तो जो निरंतर वृद्धिमान है वह ब्रह्म है। जो पहले भी था अब भी है आइंदा भी रहेगा वही ब्रह्म है। इस सृष्टि में ब्रह्म के सिवाय दूसरा कोई तत्व है ही नहीं।
ब्रह्म विरोधी गुणों का संस्थान है 'बिग बैंग 'की तरह। कहते हैं ये सृष्टि उसी बिग बैंग से प्रसूत है। और यह सृष्टि का आदिम अणु तब भी था जब कुछ नहीं था -न काल ,कालखंड टाइम इंटरवल और न आकाश। काल के अस्तित्व के लिए तो "पहले" और "बाद" का पहले एक क्रम चाहिए सीक्वेंस चाहिए . और आकाश का तो अस्तित्व ही नहीं था -सारा गोचर ,अगोचर ,बोध गम्य, अबोधगम्य ,बूझने योग्य ,अबूझ पदार्थ ,डार्क - एनर्जी ,डार्क- मेटर (सामान्य पदार्थ से भिन्न माना गया है विज्ञान में डार्क मैटर और डार्क एनर्जी दोनों को। )सब इसी में था और यह आदिम अणु Primeval atom एक साथ सब जगह था।
Its size (volume )was zero density and temperature infinite .
ब्रह्म की तरह लेकिन यह अप्रकट रूप था। अन -मैनिफेस्ट था ,निर्गुण था।फिर एक महाविस्फोट में यह फट गया और सृष्टि का कालान्तर में जन्म हो गया। समय के साथ यह भी ब्रह्म की तरह फैलता ही जा रहा है। सृष्टि का प्रसार ज़ारी है ब्रह्म की मानिंद।
ब्रह्म ने चाहा मैं एक से अनेक हो जावूं और ये साड़ी सृष्टि बानी बनाई प्रकट हो गई ब्रह्म इसी में प्रवेश ले गया।
ब्रह्म -परमात्मा -और भगवान् -ब्रह्म में सारे गुण प्रकट नहीं है गुणों से यह प्रभावित भी नहीं होता इसीलिए इसे निर्गुण कहा गया है।
It is an impersonal form of God .
It is beyond all attributes ,omnipresent ,omniscient and all that you and I can imagine .
परमात्मा जिसका वास हमारे हृदय गह्वर में है -इसमें कुछ सीमित गुण मुखरित हैं.और भगवान् यह अनंत विरोधी गुणों का एक साथ प्रतिष्ठान है। सारे शरीर इसी के हैं और कोई भी शरीर इसका नहीं है। सारे रूप इसके हैं और यह अरूप है। अजन्मा है लेकिन अवतरित होता है। गुणों का प्राकट्य ही अवतरण है।अमर है लेकिन बहेलिये के हाथों मारा जाता है। यह एक साथ वर्तमान अतीत और भविष्य में हो सकता है होता है।
श्रीराम को रामचरितमानस में परात्पर परब्रह्म कहा गया है वह महाविष्णु है न के विष्णु का अवतार।जो सारे कायनात में रमा हुआ है रमैया है सब जिसमें रमण करते हैं सबको जो आनंद देता है वही राम है।
त्रिदेव या "देव -त्रय"-ब्रह्मा -विष्णु -महेश इसके उपासक हैं। भागवत पुराण और भगवदगीता में इसी परात्पर ब्रह्म को कृष्ण कह दिया गया है। गुरुग्रंथ साहब में यही वाहगुरु है। दस के दस गुरु उसके सन्देश वाहक हैं। परात्पर ब्रह्म वही है जो ऐसे एक साथ अनंत ब्रह्मा -विष्णु -महेश का सर्जक है। तत्व सब जगह एक ही है दूसरा कोई है ही नहीं।
"एक ओंगकार सतनाम" -ईशवर और उसकी सृष्टि एक ही है। वह इसी में हैं कहीं गया नहीं है। हमारे अज्ञान का आवरण उसे अज्ञेय बनाये रहता है। यही माया है इसे प्रकृति कह लो माया का मायावी आवरण ज्ञान से कटे तो वह अनुभूत हो। इन दैहिक नेत्रों का विषय नहीं है वाहगुरु कृष्ण या राम। ज्ञान चक्षु का विषय है ब्रह्म।
कई उपनिषदों में एक श्लोक आया है जिसका अर्थ है -वह ब्रह्म अनंत है उसकी यह सृष्टि भी अनंत है। पूर्ण से पूर्ण ही का प्राकट्य होता है। सृष्टि के उसमें से निकल जाने के बाद वह ब्रह्म न बढ़ता है न घटता है। और सृष्टि के लय (विलय ,डिज़ोल्व )होने पर भी वह ब्रह्म ही रहता है। अनंत का अनंत।
वह बिग -बैंग भी निराकार बतलाया गया है शून्य आकारी है आकार हुआ तो एक साथ सब जगह कैसे होवे । और घनत्व और तापमान उसका अनंत कहा गया है। और यह सृष्टि यह मात्र एक आवधिक प्राकट्य है टेन्योर है। सारी कायनात एक बार फिर इस आदिम अणु में लय हो जाएगी। ऐसा होता रहता है। होता रहेगा। ये प्राकट्य ही तो माया है।
माया क्या है ?
'जो हो न' लेकिन दिखलाई दे।जैसे खरगोश के सींग ,स्वर्ण मृग ,रेगिस्तान में पानी। सागर के ऊपर हवा में लटका हुआ उलटा जहाज। जैसे उड़न तश्तरी। बरमूडा त्रिकोण। यही तो माया है जो है भी नहीं भी है और दोनों ही नहीं है। लेकिन मेरा उसके साथ लेन देन है ट्रांसेक्शन है।यही तो उसका छल है कुनबा माया का और मैं कहूँ मेरा।
कबीर कहते हैं :
मन फूला फूला फिरै , जगत में झूठा नाता रे।
जब तक जीवै माता रोवै बहन रोये दस मासा रे ,
और तेरह दिन तक तिरिया रोवे ,
फेर करे घर वासा रे।
https://www.youtube.com/watch?v=fblWyQP0iKs
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