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उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन : ||

उद्धरेदात्मनात्मानं   नात्मानमवसादयेत | 

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव  रिपुरात्मन :  || 

अपने द्वारा अपना उद्धार करें , अपना पतन न करें क्योंकि आप ही अपना मित्र हैं  और आप ही अपना शत्रु हैं । 

व्याख्या :गुरु बनना या बनाना गीता का सिद्धांत नहीं है। वास्तव में मनुष्य आप ही अपना गुरु है। इसलिए अपने को ही उपदेश दे अर्थात  दूसरे में कमी न देखकर अपने में ही कमी देखे और उसे मिटाने की चेष्टा करे। भगवान् भी विद्यमान हैं ,तत्व ज्ञान भी विद्यमान है और हम भी विद्यमान हैं ,फिर उद्धार में देरी क्यों ? नाशवान व्यक्ति ,पदार्थ और क्रिया में आसक्ति के कारण ही उद्धार में देरी हो रही है। इसे मिटाने की जिम्मेवारी हम पर ही  है ; क्योंकि हमने ही  आसक्ति की है। 

पूर्वपक्ष: गुरु ,संत और  भगवान् भी तो मनुष्य का उद्धार करते हैं ,ऐसा लोक में देखा जाता है ?

उत्तरपक्ष : गुरु ,संत और भगवान् भी मनुष्य का तभी उद्धार करते हैं ,जब वह (मनुष्य )स्वयं उन्हें स्वीकार करता है अर्थात उनपर श्रद्धा -विश्वास करता है ,उनके सम्मुख होता है ,उनकी शरण लेता है ,उनकी आज्ञा का पालन करता है। गुरु ,संत और भगवान् का कभी अभाव नहीं होता ,पर अभी तक हमारा उद्धार नहीं हुआ तो इससे सिद्ध होता है कि हमने ही उन्हें स्वीकार नहीं किया। जिन्होनें उन्हें स्वीकार किया उन्हीं का उद्धार हुआ। अत : अपने उद्धार और पतन में हम ही हेतु हुए।  

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