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संघाती क्या आत्मघाती है हमारी सरे -राह चलते चलते थूकने की आदत

पब्लिक प्लेसिस(सार्वजनिक स्थानों ) पे सरे आम थूकना पीक उगलना हम में से कितनों की आदत में शुमार है कहना मुश्किल है अलबत्ता ये अंदाज़ा ज़रूर लगाया जा सकता है पान मसाला ,गुटखा कितने लोग खाते हैं और कितने तम्बाकू मिला गुटका खाते हैं कितने खैनी और मैनपुरी देसी तम्बाकू खाने के आदी हो चलें हैं। कितने ओरल कैंसर समूह के रोगों से ग्रस्त हैं। लेकिन यहां हमारा फॉकस सिर्फ थूकने की गन्दी और घिनौनी आदत पर ही सिमटा  रहेगा। 

कुछ लोगों के कायिक सिस्टम में कफ कुदरती तौर परा ही ज्यादा बनता है कह सकतें हैं इसे प्रोडक्टिव कफ ये लोग कफ प्रधान भी हो सकते हैं वात -पित्त -कफ की तिकड़ी का संतुलन निरोगी काया में छिपा हुआ माना गया है आयुर्वेद में। किसी एक का बाहुल्य सारा खेल बिगाड़ देता है।काया को रोगी बना देता है।  

आखिर लोग पब्लिक स्पेसिस आम जगहों सड़कों पार्को गली कूचों में थूकते ही क्यों है क्या यह भी ऑब्सेसिव कम्पलसिव डिसऑर्डर माना जाए। इस विषय पर मैंने एक मर्तबा अपने गुरु -वत ,मित्र -वत मुंह बोले मामा से बात की बतला दूँ :आप दो मर्तबा ,दो कालावधियों में नेशनल साइकोलॉजिस्ट रह चुकें हैं। आपने बतलाया विदेशों में अपने तीन साला प्रवास के दरमियान  किसी को पब्लिक प्लेसिज़ में  थूकते नहीं देखा । इसका कारण यह भी है वहां साफ़ सफाई बहुत ज्यादा रहती है अंदर से थूकने का मन ही नहीं होता भारत में आम स्थानों पर पेशाब घरों में अंदर और बाहर भी बेहद की गंदगी रहती हैं जहां कई मर्तबा उसे ही देखकर आदमी थूकता है। यह बातचीत स्वास्थ्य मिशन से पहले की है।

 हालांकि अभी भी सूरते हाल कोई ख़ास बदले नहीं हैं अलबत्ता लोग स्वास्थ्य सचेत ज़रूर हुए हैं जन-शौचालय बढ़ें  हैं लेकिन अभी भी पेशाब घरों की बेहद कमी बनी हुई है चोरी छिपे लोग अभी भी मौक़ा ताड़के कर ही लेते हैं हालाकि बचपन से हम देखते आये हैं सार्वजनिक स्थानों पर बसों में ,रेलगाड़ियों में पार्कों धर्मशालाओं  आदिक में लिखा होता है :कृपया यहां कहीं भी  न थूकें ,कृपया यहां मत थूकें ,यहाँ थूकना मना है। 

कोरोना का शुक्रिया तो कोई क्या करेगा लेकिन इसके चलते -रहते हमारी कई आदतें  हमेशा हमेशा के लिए बदलेंगी ज़रूर ऐसा मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। थूकना अब दंडनीय अपराध की श्रेणी में आ पहुंचा है। सार्वजनिक स्थानों पर थूकने पर न सिर्फ रुपया दो हज़ार का जुर्माना हो सकता है सज़ा -ए -जेल भी हो सकती है। 

हमारे स्वास्थ्य की नव्ज़ हमारा स्वास्थ्य (विज्ञान )सचेत होना ,साफ -सुथरे रहना तमाम लोगों के स्वास्थ्य से भी जुड़ा है थूकना स्वास्थ्य की दृष्टि से एक खतरना बीमारी पैदा करने वाली आदत है खासकर इस दौर में जब लोगों ने मुख पट पहने हुए हैं अगौछों ,गमछों से मुंह ढ़ाँप लिए हैं घरेलु मास्क पहन लिए हैं मास्क लगाए रहना क्यों हमारे हित में है इसकी एक वजह सर -राह चलते -चलते थूकना भी है। थूक से उड़कर थूक के अणु आसपास की हवा में एरोसोल्स (PM 10 )बन के तैरते रह सकते हैं धूल  से मिलकर । 

सार्स -कोव -दो (CoVid-२०१९ .... Co for corona Vi for virus and d for disease )के खतरे को बढ़ाने के अलावा हमारे देश में अगर लोग थूकने की गन्दी आदत (लत )कोशिश करके छोड़ दें तो हर साल होने वाली दवा -रोधी तपेदिक की मार से तकरीबन डेढ़ लाख़ तथा आम तपेदिक के अठ्ठाइस लाख़ मामलों से भी भारत को निजात मिल जाए। दुनिया के कुल मामलों में तपेदिक के एक चौथाई मामले भारत में दर्ज़ होते हैं हर घंटा तपेदिक १२०० लोगों की जान ले रही है कुछ इसका कारण लोगों के हालात ,तंगहाली साफ़ रिहाइश का हवा पानी का पोषक खुराक का अभाव और कुछ आदतें जैसे कि  इलाज़ बीच में ही छोड़कर भाग खड़े होने की हमारी आदत तपेदिक जैसे रोगों को भी ला -इलाज़ बना चुकी है। कोरोना का मामला दूसरा है। यहां गरीब अमीर काले गोरे  का फर्क नहीं है।यहां तो बचाव ही पुख्ता इलाज़ है। 

थूकना भी यहां भारत में किसी की भी अमीर हो या गरीब की आदत में शुमार  देखा जा सकता है।   

हाथ जोड़कर विनती है खुद की हिफाज़त के लिए भी मास्क हटाकर वक्त जरूरत के अधीन बाहर निकले लोग दायें बाएं न थूकें। ये भी देश सेवा मानी जायेगी। आप हिफाज़त करेंगे अपनी तो देश भी बचेगा। अकेला चना क्या भाड़ झौंकेगा। अकेली सरकारें क्या कर सकती हैं जबकि तमाम राज्यों के इंतज़ामात काफी नहीं हैं इफरात  से नहीं हैं  . आपका सहयोग अपेक्षित है।बूँद बूँद सो बहरे सरोवर। 


सन्दर्भ सामिग्री एवं उत्प्रेरण : TOI NEW DELHI ED APRIL 17 ,2020 SECOND EDITORIAL 


In making spitting in public spaces punishable with fines, the government has gone on the offensive against a repugnant habit that refuses to change despite decades of grappling with tuberculosis as a public health challenge. Though spitting bans by many municipal bodies have been in effect for years, enforcement remains shoddy. Now Centre has invoked Disaster Management Act provisions to empower district magistrates to act against violators. Additionally, bans have also been imposed on sale of chewable tobacco.


The danger of Covid-19 spread through respiratory droplets and exhaled aerosolised particles has been well-documented and spitting is one of the common transmission avenues besides respiration, sneezing and coughing. Sneezing and coughing are involuntary to a large extent but wearing a mask can mitigate risks. But spitting is a conscious act reinforced by habit, which years of awareness campaigns by public agencies have cautioned against to no avail. Even a mask may not deter a compulsive spitter. The West defeated spitting, first with society’s upper crust abandoning the habit and the rest joining in imitation.
But in India both rich and poor, especially tobacco and paan consumers, continue to believe in its expurgatory benefits for the self, communicable diseases be damned. It’s taken a highly virulent infectious disease for most people to realise how personal hygiene and public health are conjoined. Policing spitting is messy business for the overstretched state. But public shaming may work wonders. If open defecation could be tackled with the Swachh Bharat campaign, public spitting should be easy game for the Indian state. Gutka sales bans alone don’t help if production continues unhindered. Now, imagine a multi-drug resistant TB strain going virulent like Covid-19. A fifth of the world’s 10 million new TB cases in 2018 were Indians. Let’s not spit, or get caught spitting. Or the spittle will come back to hit us.

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